मेरे इस ब्लॉग को आप मेरे कविता संग्रह के रूप में देखिये | मैं चाहता हूँ कि यदि कोई मेरी कविताएँ पढना चाहे तो उसे मेरी अधिकतर कविताएँ एक ही स्थान पर पढने को मिल जाएँ | आज के दौर में जब कि जल्दी-जल्दी कविता संग्रह का प्रकाशन संभव नहीं है, एक ऐसे प्रयास के ज़रिये अपने पाठकों तक पहुँचने की ये मेरी विनम्र कोशिश है | आप कविताओं के सदर्भ में अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवश्य अवगत कराएँगे | मुझे प्रतीक्षा रहेगी | कविताओं के साथ प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स अजामिल की हैं |

Wednesday 26 November 2014

बेटियाँ




 























(एक)
जिन्दगी की आपाधापी में
जब सहारे छूटने लगते हैं मँझधार में
मन उदास हो जाता है-अपने से लड़ते हुए
बेटियाँ चुपके से आती हैं सपनों में
थकी-हारी देह को सहलाने-दुलराने के लिए
हारे को भी हारने नहीं देती बेटियाँ।

बेटियाँ हाथ पकड़ लेती हैं तो
अच्छा लगता है
आधे-अधूरे नहीं रह जाते हम

इस महासमर में जबकि हमें उस ओर जाना है
बेटियाँ हमें आश्वस्त करती हैं
सकुशल यात्रा के लिए

बेटियाँ हमारे स्वर्ग हैं
बेटियाँ भरोसा हैं- ईश्वर का
अंकुरित-पुष्पित और पल्लवित होती बेटियाँ
एक खूबसूरत दिन की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति हैं- हमारे बगीचे की
बेटियाँ हमारी जिन्दगी जीने का
सबसे खूबसूरत बहाना हैं
(
दो)
माँ की पवित्र कामनायें हैं बेटियाँ
पिता के सात जन्मों के पुण्यों का फल हैं बेटियाँ
पूर्वजों के आशीर्वाद के बिना किसी को नहीं
मिलती हैं बेटियाँ

प्रकृति के संकीर्तन के बाद
घर में आ गयी हैं बेटियाँ
तो प्यार से सहेजो
इस कुल देवी माँ को !
(
तीन)
बेटियाँ खिलखिला रही हैं
दूर कहीं मंदिर में घंटियाँ बज रही हैं
बेटियाँ गा रही हैं
जीवन का पवित्रतम सच कहा जा रहा है
पूरी शिद्दत से
बेटियाँ नाच रही हैं
पूरी सृष्टि नाच रही है आनन्द मंगल की कामना लिए हुए
बेटियाँ बुनियाद हैं - नाते-रिश्तों की
बेटियाँ विस्तार हैं कहे-अनकहे सत्य की
बेटियाँ पृथ्वी हैं
बीज हैं बेटियाँ
गीत हैं - साज हैं बेटियाँ
रस्मो-रिवाज हैं बेटियाँ

बेटियों के रहते
कौन रोक सकता है मकान को घर बनने से
बेटियाँ गर्भ में हों
तो प्रतीक्षा करो इस सौभाग्य के
पृथ्वी पर
अवतरित होने की

जूते और टोपी



























चापलूसी के लिए दाखिल हुए चाटुकार

सबसे पहले मुखालफत की जूतों ने
रुक गये-ठिठक कर-पैरों से निकाले जाते ही
एकजुट हो गये
दरवाजे पर
इंकार किया उन्होंने
धूल चाटने से

सिर चढ़ी टोपियाँ गयीं साथ
इसीलिये उछाली गयीं भरे दरबार में

फर्शी सलाम बजाते हुए
गिरीं कई-कई बार
उनके कदमों पर

खुद्दार थे मुई खाल के जूते
जो डटे तो डेट रहे अन्त तक

हिनहिनाती रहीं टोपियाँ
राजा साहब की हाँ में हाँ मिलाकर

काली स्लेट



















समय एक खाली स्लेट की तरह था।
और वर्तमान के अय्याश
रंग भोगते कुछ भोथरे लोग
अपनी गलीज आकांक्षा के फ्रेम में उसे कस रहे थे
तभी तपती दोपहर के सनसनाते एकांत में
मैंने उस पर एक शब्द लिखा-  भूख


उस क्षण आसपास चुभती शक्लें
मुखौटों के पीछे आँखें चलाने लगी
वे अपने जमे पैरों पर आतंकित हो गये
स्थिति संतुलन के लिए
मैं कोई रोचक झूठ तलाशने लगा
तभी, बिलकुल तभी
कुछ समझदार लोग मेरे नाबालिग बेटे को
मर्दानी कमजोरी का भेद समझाने लगे थे


मैं समझता था मैं समझ गया हूँ -
दूर डूब गये कल और एक भ्रूण आज के बीच
इतिहास ने जो कुछ हमें दिया है
वह संवेदना के स्तर पर दिमाग पर
फौजी बूटों का दबाव झेलता रहा है


अब तुम आईने के सामने
इस तरह बागी दिखते हो कि वक्त तुमसे पूछे -
तुम्हारी प्राथमिक आवश्यकता
तो  तुम कहोगे-एक बदजात औरत और
मुझमें से मेरा मैंनिचोड़ देने के लिए कोई पुरानी शराब,


मैं जानता हूँ मेरा बेटा
काल की छाती पर लिखा भूखशब्द नहीं काटेगा,
शिकारी कुत्तों के दस्ते में शामिल होकर
वह बारूद के खतरनाक खेल करेगा
कभी न कभी भूख को नई परिभाषा देगा


भूख: शरीर में होने वाली ऐसी उत्तेजनात्मक कार्रवाई है
जो आदमी को दुश्मन के खिलाफ खड़ा करती है
मुझे नहीं भूलना चाहिए कि कल इन सुगबुगाते लोगों के बीच
होगी ताज़ी हवा