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Wednesday 25 March 2015

बाबूजी की चिट्ठियाँ




















जैसे कोई किसी की   
जिंदगी सँवारता है - धीरे-धीरे
मुजस्समे तराशता है संतरास
संगीत रचता है -
हवाओं के चलने से
आस्थाएं और विश्वास से पैदा होते हैं
वेद-पुराण
बाइबिल-कुरान
बीज बनता है वृक्ष जैसे
वैसे ही किसी अज्ञात पीड़ा से गुजरकर
चिट्ठियाँ लिखा करते थे बाबूजी -
एक कलाकार की तरह

शबनमीं हरूफों के
गोशे-गोशे में
बसी होती थी उनकी रूह

कहाँ जाना है
कहाँ मुड़ना है
कहाँ रुकना है - बताते थे ऐसे
जैसे कोई भटके हुए को
बताए रास्ता

प्रियसे शुरु होकर
तुम्हारे बाबूजी “ तक
आशीष बरसता था - मूसलाधार
उनकी चिट्ठियों में

भीग जाता था
रोम-रोम
उनके प्यार-दुलार से
चिट्ठियों में साँस लेते थे
बाबू जी

सिर चढ़कर बोलता है आज भी
उनकी लिखावट का जादू
कोई-कोई ही बुन पाता है जिंदगी को
इतने सलीके से

यकीनन दिल और दिमाग पर
छा-जाने वाली
कालजयी रचनाओं की तरह हैं -
बाबूजी की चिट्ठियाँ

सोचता हूँ - इन्हे सहेजकर भी तो
सहेजे जा सकते हैं -
बाबूजी

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