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Tuesday 7 October 2014

चुगली करता है चेहरा


























जब अंदर- ही- अंदर जब
हम बुन रहे होते हैं
चिंताओं का नर्क
कितना भी छुपाओ
चुगली करता है चेहरा

अहंकार छीलता है जब कभी
चुगली करता है चेहरा

कभी अज्ञात नहीं होती सुंदरता
आँखों के कुछ तयशुदा पैमानों से
हम खोज ही लेते हैं उसे
बहुरूपताएं मापी जाती हैं
मापे जाते हैं बहुरूपिये
मापी जाती हैं लिपी -पुती सुंदरता

सीमाएं कुरूप हैं
असीम है सुंदरता

आइना होता है जब कभी रुबरु
कितने भी छुपाएँ जाये दुःख
चुगली करता है चेहरा

मन के रहस्य आतुर हैं
आत्मा को जानने के लिए
सतह पर घूमती है काली छाया
चुगली करता है चेहरा

देह में मन जैसे
गर्भ में शिशु होता है सुन्दर
पृथ्वी पर बीज-खुद को तलाशते हुए  
अदृश्य हवा-पत्ते पर ओस की बूँद
जैसे चुम्बन के बीच गर्म साँसे

स्मृतियों की गहराई में कुलबुलाती हैं
जब कभी कोमल इच्छाएं
चुगली करता है चेहरा

अनंत शान्ति में जहाँ तक
देखा जा सकता है और नहीं भी
बदल रहा है चेहरा, शरीर, घर और वस्त्र

सबको चाहिए बस एक चिर-परिचित
ग्रीनरूम-नाटक से पहले
कि हमारे भीतर जागे कोई खलनायक
जब कभी चुगली करता है चेहरा
अंदर ही अंदर जब हम बुन रहे होते हैं
चिंताओं का नर्क
चुगली करता है चेहरा

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