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Tuesday 7 October 2014

गुप्तज्ञान के साधक


















समय तेज़ हवाओं के साथ बहता हुआ
कितना भी विपरीत क्यों न हो
जिन्हें लड़ना है
वे लड़ते हैं आखिरी सांस तक.

वे लड़ते हैं चिता पर आग के विरुद्ध
वे देखते हैं अपनी ही मौत को
ठंडी ज़मीन पर
तिल-तिल कर राख होते हुए
लेकिन वे कभी मरते नहीं
उनके लिए बच ही जाती है कोई जगह
जहाँ वे सुगबुगाते हैं-एक नई जिंदगी के लिए

कोई नहीं जान पाता उनका दिमाग
जिसकी अँधेरी गलियों में भटकती हैं
उनकी उम्मीदे

वे महसूस कर सकते हैं
दूसरों का दुःख
टेढ़े-मेढे जीवन के रास्तों पर चलते हुए
लौकिक दिमागों के बीच
बेतरतीब आशंकाओं से घिरे रहकर

मौत के बाद जब शेष नहीं होगा कुछ भी
वे पंछियों की तरह उड़ेंगे आकाश में
क्योंकि ऊंचाई कितनी भी हो
उन्हें उड़ना है
वे उड़ते हैं आखिरी सांस तक

तमाम पार्थिव प्रयासों के बीच
स्वयं को तलाशते हुए
मंदिरों, गिरजाघरों, गुरुद्वारों और दरगाहों पर
वे मिलेंगे नंगे पैर किसी अनजानी दिशा की ओर
जाते हुए
वे मिलेंगे मन्नतों और ताबीजों में
थोथी दुआओं में
श्मशान के डरावने सन्नाटे में
जंगलों में गुफाओं में
काले जादू में तन्त्रो में, मन्त्रों में
वे जहां  भी मिलेंगे मिलेंगे
जड़ता की मुखालफत में
लड़ते हुए क्योंकि
उन्हें लड़ना है जिंदगी में
आखिरी सांस तक

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